[post-views]

भूख से बच्चों की मौत-व्यवस्था के गाल पर तमाचा

54
PBK News | लेखक : शरद गोयल मुख्य संपादक : 24 जुलाई 2018 को देश की राजधानी में ऐसा दर्दनाक हादसा हुआ जो हमारी वर्तमान व्यवस्था के गाल पर कड़ा तमाचा है और  सभी राजनैतिक दलों को आज के बदलते भारत की नई तस्वीर दिखाता है। दिल्ली की तुलना विश्व के उन्नत देशों से करने वाले राजनैतिक दलों के लिये यह शर्मसार होने वाली घटना है। मैं इस घटना को निर्भया कांड से कम नहीं मानता। दिल्ली के मंडावली गाँव में तीन छोटी बच्चियां भूख के कारण मर गई। पहले शक और फिर उसके बाद पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में यह साबित हो गया कि बच्चियों के पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं था। उससे भी अधिक दुःख की घटना यह लगी कि महज दो दिन बाद ही यह समाचार  समाचार पत्रों में चौथे व पाँचवें पन्ने पर आ गया। एयरक्राफ्ट और बुलेट ट्रेन का सपना लेने वाले बदलते भारत की राजधानी में इस तरह की घटना पर मीडिया का ऐसा रुख कोई चौकाने वाला नहीं है। मीडिया के लिये बहुत ही जल्दी न्यूज बासी हो जाती है और यह हादसा भी एक समाचार के अलावा कुछ भी नहीं है।

पिछले 2014 के चुनाव से पहले 12 सितम्बर 2013 को सरकार ने नैशनल फूड सिक्योरिटी बिल को बड़े जोर शोर से पास कर दिया और जिस पर 2014 के चुनाव में वोट मांगे। यदि यह बिल सरकार पूरी तरह से सरकार लागू करती तो इस बिल के प्रावधानों के तहत 67 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को इस बिल का फायदा मिलेगा और इन 67 प्रतिशत लोगों को चावल 3 रु. किलो, गेहूं 2 रु. किलो व मोटा अनाज ज्वार बाजरा इत्यादि 1 रु. किलो मिलेगा। बिल के यदि सभी प्रावधानों पर अमल किया जाता तो इस बिल में गर्भवती महिलाओं से लेकर वृद्ध लोगों को इसका फायदा मिलना था। स्कूल जाने वाले बच्चों को पका हुआ खाना मिलना था। 6 करोड़ 52 लाख बीपीएल परिवारों को 35 किलो गेहूं और चावल प्रतिवर्ष मिलना था।

अब बात करते हैं देश में प्रतिवर्ष कितना गेहूं सड़ता या खराब हो जाता है। यू एन डी पी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 40 प्रतिशत खाद्य उत्पादन व्यर्थ जाता है जो कि पीडीएस के अन्दर गरीबों तक नहीं पहुंच पाता है। अर्थात देश में खाद्य उत्पादों की कमी नहीं है। एक तरफ गेहूं, चावल, धान, बाजरा गोदामों व मण्डियों में सड़ रहा होता है और दूसरी ओर देश की राजधानी में एक परिवार के तीन-तीन बच्चे भूख से मर रहे होते हैं। आखिर किस भारत की कल्पना कर रहे हैं हम? यदि राजनैतिक दलों की 70 सालों की उपलब्धियों को देखें व देश की दुर्दशा को ध्यान में रखें तो आपको ऐसा लगेगा कि यदि जंगल काट कर भी कोई देश बसाया जाता तो वह भी इससे अच्छा होता व सुन्दर होता। एक रिपोर्ट पर विश्वास करें तो 5 साल से कम उम्र के बच्चे लगभग भूख व कुपोषण के कारण मरते हैं। भारत में लगभग 18 करोड़ लोग रात को भूखे सोते हैं, भारत की रैंकिंग ग्लोबल हंगर इन्डैक्स के 88 देशों में 63वीं आती है। एक प्रतिष्ठित अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रतिदिन 4500 बच्चों की मौत भूख व कुपोषण से होती है।

हम देश की आजादी के 70 साल बाद भी देश में उपलब्ध अनाज भंडारण व विस्तारण की योजना नहीं बना पाये। हम सुनिश्चित नहीं कर पाये कि भंडारण व्यवस्था के अभाव में अनाज का एक भी दाना व्यर्थ न जाये। ग्लोबल हंगर इण्डैक्स के अनुसार ही 62 हजार टन फूड ग्रेन अनाज गोदामों में प्रतिवर्ष सड़ जाता है। एक और आर टी आई के उत्तर में जानकारी मिली कि व्यर्थ जाने व सड़ने वाला अनाज 61824 टन है। भारत सरकार का संस्थान फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया पूरे देश में अनाज के भण्डारण को संभालता है और उसके पास लगभग 1880 गोदाम हैं। इन कुल गोदामों की भण्डारण क्षमता 811 लाख टन है, जबकि हमें कुल भण्डारण क्षमता 534 लाख टन चाहिये। अर्थात देश में उपलब्ध भण्डारण क्षमता की कमी नहीं है। खाद्य पदार्थों की कमी नहीं है, भण्डारण क्षमता की कमी नहीं है, तो आखिर कमी किस चीज की है। देश में यदि फूड वेस्ट और फूड के उपर डाटा इकट्ठा करा जाये तो नतीजे बहुत चौंकाने वाले हैं।

अब इस सिक्के के दूसरे पहलू की बात करते हैं। सभी प्रकार का रिपोर्टों का यदि निष्कर्ष निकालें तो देश में शादी बयाह व उत्सवों (जिसमें सभी धर्मों के रीति रिवाज शामिल हैं) लगभग उनमें 50 हजार करोड़ रुपये का खाना व्यर्थ जाता है। कहने को ढेरों गैर सरकारी संस्थान(एन जी ओ) शादी ब्याह व होटलों में बचे खाने को गरीब लोगों में बांटने का दावा करते हैं, किन्तु यह दावे कितने सच हैं, मण्डावली गाँव के हादसे ने सब बता दिया है।

आश्चर्य की बात यह है कि यदि सरकारी दावों व प्रयासों को भी छोड़ दें तो हमारी सामाजिक व धार्मिक मान्यतायें समाज में किसी को भूखा रहने के लिये नहीं छोड़ सकती। हमारे संस्कारों में हर उत्सव में,हर उपलक्ष्य में किसी न किसी रूप में खाना बांटने की प्रथा है जिसको हम भंडारा, लंगर अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। मंदिरों में प्रसाद के रूप में, गुरूद्वारे में लंगर के रूप में ओर अन्य धर्मिक संस्थाओं में भोजन का वितरण किया जाता है। तो क्या हमारी धार्मिक मान्यतायें भी बदलाव चाहती हैं। हम जरूरतमंदों को न खिलाकर सिर्फ वाहवाही लूटने व फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर वायरल करने के लिये इन भण्डारों व लंगरों का आयोजन करते हैं। देश के मंदिरों में चढ़ने वाले प्रसाद के रूप में जो सामग्री बांटी जाती है, और खराब होती है वह भी लाखों गरीब लोगों का पेट भर सकती है।

यह बातें तो हमने खाद्य सामग्री की की, यदि खाने योग्य फल व सब्जियों की बात करें तो वह भी देश की राजधानी दिल्ली में 18 से 20 प्रतिशत तक खराब हो जाता है और अगले दिन फेंकना पड़ता है। मुझे लगता है कि मण्डावली की इस घटना को सरकार व समाज के बुद्धिजीवी लोगों व संस्थाओं को लेना चाहिये था, उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया। कम से कम देश की राजधानी में मै तो कहूंगा कि पूरे देश में इस तरह की घटनायें दोबारा न दोहराई जायें। सरकारों पर यह एक दायित्व है कि यह एक ऐसी घटना है जिसे राजनैतिक दृष्टिकोण से न देखकर मानवता की दृष्टि से देखना चाहिये। सार्मथ्यवान लोगों को शादी ब्याह में दो-दो पकवान व विभिन्न प्रकार के व्यंजनों केा बनाने का आडंबर करने वाले लोगों को यह घटना आईना दिखाती है। छोटी-छोटी  बातों पर मन की बात जानने वाले प्रधानमंत्री जी को इस बात पर संज्ञान लेना चाहिये और इस तरह की घटनाओं की देश मे पुनरावृति न हो , इसका प्रबन्ध करना चाहिये।

लेखक : शरद गोयल मुख्य संपादक 

 

Comments are closed.