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तीन तलाक: मुस्लिम समाज के लिए नजीर पेश नहीं कर पाए ‘नजीर’

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PBK NEWS | नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की पांज जजों की संवैधानिक पीठ ने तीन तलाक पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। 1400 साल पुरानी तीन तलाक की प्रथा को पांच में से तीन जजों ने असंवैधानिक करार दिया है। यूं तो किसी जज का कोई धर्म नहीं होता और कानून ही उनकी सबसे बड़ी आस्था होती है, लेकिन 18 महीने पहले दायर हुई पिटीशन पर फैसला सुनाने वाली बेंच में चीफ जस्टिस जेएस खेहर (सिख), जस्टिस कुरियन जोसफ (इसाई), जस्टिस आरएफ नरीमन (पारसी), जस्टिस यूयू ललित (हिंदू) और जस्टिस अब्दुल नजीर (मुस्लिम) शामिल थे। बेंच ने फैसला 3:2 की मेजॉरिटी से सुनाया है।

पांच सदस्यीय संविधान पीठ की राय बंटी रही, फिर भी बहुमत के निर्णय से तीन तलाक प्रथा असंवैधानिक ठहरा दी गई है। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति यूयू ललित ने बहुमत से फैसला सुनाते हुए एक बार में तीन तलाक को असंवैधानिक और मनमाना ठहराते हुए निरस्त कर दिया। जबकि प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर व न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर ने अल्पमत से फैसला देते हुए कहा कि तलाक-ए-बिद्दत मुस्लिम पर्सनल लॉ का हिस्सा है और इसे संविधान में मिली धार्मिक आजादी (अनुच्छेद 25) में संरक्षण मिलेगा, कोर्ट इसे निरस्त नहीं कर सकता। फैसला देने वाले विभिन्न न्यायाधीशों के बीच मतभिन्नता को देखते हुए बाद में प्रधान न्यायाधीश ने तीन न्यायाधीशों के बहुमत के फैसले को लागू करते हुए तलाक-ए-बिद्दत के प्रचलन को खारिज किया। जस्टिस जोसेफ ने कहा कि तीन तलाक इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है, इसलिए वह प्रधान न्यायाधीश से सहमत नहीं हैं।

तीन जजों ने कहा- यह बराबरी के हक का हनन

बहुमत से दिए गए तीन न्यायाधीशों के फैसले में जस्टिस कुरियन जोसेफ ने अलग से फैसला लिखा है, जबकि जस्टिस नरीमन और जस्टिस यूयू ललित की ओर से एक साथ फैसला दिया गया है, जिसे जस्टिस नरीमन ने लिखा है। फैसले में जस्टिस नरीमन और ललित ने तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा कि एक साथ तीन तलाक तत्काल और खत्म न किए जाने वाला तलाक होता है। इसमें दोनों परिवार के दो मध्यस्थों द्वारा पति-पत्नी के बीच सुलह कराने की कोई गुंजाइश नहीं होती। तलाक का यह तरीका गलत और मनमाना है। इसमें मुस्लिम पति स्वेच्छाचारी और मनमाने ढंग से कभी भी शादी के बंधन को तोड़ सकता है। इसमें समझौते के जरिये शादी को बचाने की कोशिश भी नहीं हो सकती। इसलिए तलाक का यह तरीका संविधान के अनुच्छेद-14 में मिले बराबरी के हक का उल्लंघन करता है। पीठ ने कहा कि एक साथ तीन तलाक को मान्यता देने वाला शरीयत कानून 1937 संविधान के अनुच्छेद 13(1) के तहत लागू कानून माना जाएगा। कोर्ट ने शरीयत कानून की धारा-2 में तीन तलाक को दी गई मान्यता को शून्य घोषित करते हुए रद कर दिया।

दो जजों ने कहा-सरकार के कानून बनाने तक लागू रहे रोक

हालांकि अल्पमत से फैसला देने वाले दोनों न्यायाधीशों यानी प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर और न्यायाधीश एस. अब्दुल नजीर ने भी तलाक-ए-बिद्दत के प्रचलन को लिंग आधारित भेदभाव माना है और सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 142 में मिली विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सरकार को इस बारे में उचित कानून बनाने पर विचार करने को कहा है। साथ ही उम्मीद जताई कि कानून बनाते समय दुनिया के अन्य मुस्लिम देशों में बने कानूनों और मुस्लिम पर्सनल लॉ और शरीयत की प्रगति को भी ध्यान में रखा जाएगा। दोनों न्यायाधीशों ने राजनीतिक दलों से कहा है कि कानून पर विचार होते समय वे अपने राजनीतिक फायदों को एक किनारे रख कर कानून की दिशा में जरूरी उपाय करें। उन्होंने कानून बनने तक एक बार में तीन तलाक देने पर रोक लगाई है। उन्होंने कहा कि जब तक इस बारे में कानून बनता है, तब तक शौहर अपनी बीवियों को एक साथ तीन तलाक नहीं कहेंगे।

प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर ने अल्पमत का फैसला लिखते हुए धार्मिक आजादी के हक का हवाला दे एक बार में तीन तलाक यानि तलाक ए बिद्दत को असंवैधानिक घोषित करने की मांग तो ठुकरा दी लेकिन सरकार को कानून बनाने पर विचार करने का निर्देश देते हुए कहा कि कानून के जरिये हालात बदले जा सकते हैं। उन्होंने कानून बनने तक एक बार में तीन तलाक रोक लगाने का आदेश देने में सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 142 में प्राप्त विशेष शक्तियों का इस्तेमाल किया है।

जस्टिस खेहर ने स्वयं और जस्टिस अब्दुल नजीर की ओर से फैसला लिखते हुए कहा है कि तलाक बिद्दत हनफी पंथ को मानने वाले सुन्नियों के धर्म का अभिन्न हिस्सा है। ये उनकी आस्था का मसला है जिसका वे 1400 वर्षो से पालन करते आ रहे हैं। ये उनके पर्सनल लॉ का अभिन्न हिस्सा बन गया है। उन्होंने कहा कि भारत में विभिन्न धर्मो में प्रचलित समाज में अस्वीकार्य परंपराओं को कानून के जरिये ही खत्म किया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 25(2) और अनुच्छेद 44 (साथ में सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची की पांचवी प्रविष्टी) में इस कानूनी दखलंदाजी की इजाजत है। जस्टिस खेहर ने कहा है कि तलाक ए बिद्दत के प्रचलन को खत्म करने के लिए सिर्फ विधायी प्रक्रिया ही अपनाई जा सकती है। इस पर अंतरराष्ट्रीय संधियों का फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तलाक ए बिद्दत पर्सनल लॉ का अभिन्न अंग है और इसे संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक आजादी) में संरक्षण मिला है।

तलाक बिद्दत का प्रचलन अनुच्छेद 25 के उपबंधों का उल्लंघन नहीं करता। ये प्रचलन पब्लिक आर्डर, नैतिकता और स्वस्थ्य के खिलाफ नहीं है। ये प्रचलन अनुच्छेद 14, 15 और 21 का भी उल्लंघन नहीं करता क्योंकि ये सिर्फ राज्य की कार्रवाई पर लागू होते हैं। जस्टिस खेहर व नजीर का मानना है कि तलाक ए बिद्दत पर्सनल ला का हिस्सा होने के कारण उसका उतना ही महत्व है जितना अन्य मौलिक अधिकारों का है। इस प्रचलन को न्यायिक दखल के जरिये संवैधानिक नैतिकता का विरोधी होने के आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता। उन्होने यह भी कहा है कि अंतरराष्ट्रीय संधियों और पर्सनल लॉ के बीच टकराव होने की स्थिति में पर्सनल लॉ ही लागू होगा।

न्यायालय ने सरकार से कहा है कि इस फैसले पर अमल को सुनिश्चित करने के लिए वह उपयुक्त कानून बनाए। सरकार और सभी राजनीतिक दलों को प्रधान न्यायाधीश ने एक उचित सलाह दी है। कहा कि उन्हें अपने फायदे की सोच से उठकर उचित कानून बनाने पर गहराई से सोचना चाहिए। इस मामले में अब चूंकि संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो गई है, तो जाहिर है कि मामला संसद और सियासी दायरे में पहुंच गया है। वहां निर्णय का एकमात्र आधार मुस्लिम महिलाओं को मौजूदा मुसीबतों से निजात दिलाना और उनके लिए बराबरी सुनिश्चित करना होना चाहिए।

जस्टिस एस अब्‍दुल नजीर

जस्टिस एस अब्‍दुल नजीर (मुस्लिम): 1958 में जन्‍में जस्टिस नजीर ने 1983 में कर्नाटक हाई कोर्ट में वकालत शुरू की थी। वे 2003 में कर्नाटक हाई कोर्ट के अतिरिक्‍त जज बने थे और इसी साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्‍त हुए हैं।

चीफ जस्टिस जेएस खेहर

जस्टिस खेहर सिख समुदाय से ताल्‍लुक रखने वाले देश के पहले चीफ जस्टिस हैं। उन्होंने देश के 44वें चीफ जस्टिस के रूप में शपथ ली है। वे 2011 में सुप्रीम कोर्ट जज बने थे और इसी साल 27 अगस्‍त को रिटायर हो जाएंगे।

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